Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


आहुति सुभद्रा कुमारी चौहान

(1)
जनाने अस्पताल के पर्दा-वार्ड में दो स्त्रियों को एक ही दिन बच्चे हुए। कमरा नं० 5 में बाबू राधेश्याम जी की स्त्री मनोरमा को दूसरी बार पुत्र हुआ था। उन्हें प्रसूति-ज्वर हो गया था। उनकी अवस्था चिंताजनक थी। वे मृत्यु की घड़ियाँ गिन रही थीं। कमरा नं० 6 में कुन्तला की माँ के सातवां बच्चा, लड़की हुई थी। माँ-बेटी दोनों स्वस्थ और प्रसन्न थीं। घर में कोई बड़ा आदमी न होने के कारण माँ की देखभाल कुन्तला ही करती थी। उसके पिता एक दफ्तर में नौकरी करते थे। उन्हें पत्नी की देखभाल करने की फुरसत ही कहाँ थी?

पं० राधेश्याम जी, एडवोकेट, अपनी माँ और कई नौकरों के रहते हुए भी पत्नी को छोड़कर कहीं न जाते थे। दस दिन के बाद कुन्तला की माँ पूर्ण स्वस्थ होकर बच्ची समेत अपने घर चली गईं और उसी दिन राधेश्याम जी की स्त्री का देहांत हो गया। अपने नवजात शिशु को लेकर वे भी घर आए। किंतु पत्नी-विहीन घर उन्हें जंगल से भी अधिक सूना मालूम हो रहा था।

(2)
पत्नी के देहांत के बाद राधेश्याम जी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे दूसरा विवाह नहीं करेंगे। मनोरमा पर उनका अत्यंत प्रेम था। वह अपने चिह्न स्वरूप जो एक छोटा-सा बच्चा छोड़ गई थी, वही राधेश्याम जी का जीवनाधार था। वे कहते थे कि इसी को देखकर और मनोरमा की मूर्ति की पूजा करते हुए अपने जीवन के शेष दिन बिता देंगे। जिस हृदय-मंदिर में वे एक बार मनोरमा की पवित्र मूर्ति की स्थापना कर चुके थे, वहाँ पर किसी दूसरी प्रतिमा को स्थापित नहीं कर सकते थे। घर से उन्हें विरक्ति-सी हो गई थी। भीतर वे बहुत कम आते। अधिकतर बाहर बैठक में ही रहा करते। घर में आते ही वहाँ की एक-एक यस्तु उन्हें मनोरमा की स्मृति दिलाती। उनका हृदय विचलित हो जाता। जिस कमरे में मनोरमा रहा करती थी, उसमें सदा ताला पड़ा रहता। उस कमरे में वे उस दिन से कभी न गए थे, जिस दिन से मनोरमा वहाँ से निकली थी। जीवन से उन्हें वैराग्य-सा हो गया था। आने-जाने वालों को वे संसार की असारता और शरीर की नश्वरता पर लेक्चर दिया करते। कचहरी जाते, वहां भी जी न लगता। जिन लोगों से पचास रुपया फ़ीस लेनी होती उनका काम पच्चीस में ही कर देते ! ग़रीबों के मुकद्दमों में वे बिना फ़ीस के ही खड़े हो जाते । सोचते, रुपये के पीछे हाय-हाय करके करना ही क्या है ? किसी तरह जीवन को ढकेल ले जाना है। तात्पर्य यह कि जीवन में उन्हें कोई रुचि ही न रह गई थी।

दूसरे विवाह की बात आते ही, उनकी गंभीर मुद्रा को देखकर किसी को अधिक कहने-सुनने का साहस हीन होता । अतएव सभी यह समझ चुके थे कि राधेश्याम जी अब दूसरा विवाह न करेंगे । उनकी माता ने भी उनसे अनेक बार दूसरे विवाह के लिए कहा; किन्तु वे टस से मस न हुए। अन्त में वे अपनी इस इच्छा को साथ ही लिए हुए इस लोक से विदा हो गई।

इसके कुछ ही दिन बाद, राधेश्याम जी जब एक दिन "अपनी वैठक में कुछ मित्रों के साथ बैठे थे, और बाहर उनका लड़का हरिहर नौकर के साथ खेल रहा था, सामने से एक ताँगा निकला। न जाने कैसे तांगे का एक पहिया निकल गया और ताँगा कुछ दूर तक घिसटता हुआ चला गया । एक सात-आठ साल का बालक तांगे पर से गिर पड़ा और एक बालिका जो कदाचित् उसकी बड़ी बहिन थी गिरते गिरते बच कर दूसरी तरफ खड़ी हो गई । चालक को अधिक चोट आई थी । बालिका ने, मृगशावक की तरह घबराये हुए अपने दो सुन्दर नेत्र चंचल गति से सहायता के लिए चारों ओर फेरे और फिर अपने भाई को उठाने लगी। राधेश्याम जी ने देखा, और दौड़ पड़े; बालक को उठा कर झाड़ने पोंछने लगे । राधेश्याम के एक मित्र जगमोहन जो राधेश्याम के साथ ही दौड़ कर बाहर आए थे, बालिका को सम्बोधन कर के बोले-
-“कहाँ जा रही थीं कुन्तला ?”
"मौसी के घर जनेऊ है; वहीं अम्मा के पास जा रही थी”, कुन्तला ने शरमाते हुए कहा।

कुन्तला को देखते ही राधेश्याम जी की एक सोई हुई स्मृति जाग सी उठी। दूसरा तांगा बुलवा कर कुन्तला को इसमें बैठा कर उसे रवाना करके राधेश्याम जगमोहन के साथ अपनी बैठक में आ गये ।

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